Supreme Court: हाल ही में हाईकोर्ट के एक आदेश पर आपत्ति जताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस प्रशांत कुमार के आपराधिक मामलों की सुनवाई करने पर रोक लगा दी थी और उन्हें किसी वरिष्ठ जज की बेंच में बैठने के लिए कहा था। इसके खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट के 13 जजों ने चीफ जस्टिस को चिट्ठी लिखी थी। हालांकि अब सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस प्रशांत कुमार के खिलाफ जारी आदेश को कुछ ही दिनों में वापस ले लिया है।
सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा, 'हमें सीजेआई की तरफ से पत्र मिला है, जिसमें पहले जारी किए गए आदेश पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया गया है। हमने आदेश को रद्द कर दिया है और आगे की सुनवाई के लिए ये मामला हाईकोर्ट को प्रेषित कर दिया है।'
सुप्रीम कोर्ट में मामले की एक बार फिर सुनवाई करते हुए जस्टिस पारदीवाला ने नए आदेश में कहा कि हमारा इरादा संबंधित जज को किसी भी तरह की शर्मिंदगी का एहसास कराना नहीं था। हमारा एकमात्र उद्देश्य स्पष्ट रूप से त्रुटिपूर्ण आदेश को सही करना था।मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस पारदीवाला ने बेंच के आदेश में कहा, 'सबसे पहले हम यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि हमारा इरादा संबंधित न्यायाधीश को शर्मिंदा करना या उन पर आक्षेप लगाने का नहीं था। हम तो ऐसा करने के बारे में सोच भी नहीं सकते। हालांकि, जब कोई मामला अपनी सीमा को पार कर जाता है, संस्था की गरिमा खतरे में पड़ जाती है, तो संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत अपने अपीलीय अधिकार क्षेत्र के तहत कार्य करते हुए भी हस्तक्षेप करना इस कोर्ट की संवैधानिक ज़िम्मेदारी बन जाती है।'
बेंच ने आगे कहा कि विवादित आदेश में स्पष्ट त्रुटि की वजह से कड़ी फटकार लगाने के लिए बाध्य होना पड़ा। ऐसा भी हुआ है कि जब हाईकोर्ट पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने वाले आदेश पारित करते हैं, तो सुप्रीम ने हमेशा उनके जजों की सराहना भी की है।
जस्टिस पारदीवाला ने आदेश में कहा, 'हाईकोर्ट कोई अलग 'द्वीप' नहीं हैं, जिन्हें इस संस्था से अलग किया जा सके। हमने अपने आदेश में जो कुछ भी कहा, वह यह सुनिश्चित करने के लिए था कि न्यायपालिका की गरिमा और अधिकार समग्र रूप से इस देश के लोगों के मन में सदा उच्च बने रहें। यह केवल संबंधित जज द्वारा कानूनी बिंदुओं या तथ्यों को समझने में हुई भूल या भूल का मामला नहीं है। हम न्याय के हित में और संस्था के सम्मान और गरिमा की रक्षा के लिए उचित निर्देश जारी करने के बारे में चिंतित थे।
बेंच ने कहा, '...चूंकि माननीय चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया से लिखित अनुरोध प्राप्त हुआ है और उसी के अनुरूप, हम 4 अगस्त 2025 के अपने आदेश से पैरा 25 और 26 को हटा रहे हैं। आदेश में तदनुसार संशोधन किया जाए। हम इन पैराग्राफों को हटाते हुए, अब इस मामले की जांच का कार्य इलाहाबाद हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस पर छोड़ते हैं। हम पूरी तरह से स्वीकार करते हैं कि हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस ही मास्टर ऑफ रोस्टर हैं। ये निर्देश हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस की प्रशासनिक शक्ति में किसी भी प्रकार से हस्तक्षेप नहीं है।
बता दें कि 4 अगस्त को एक मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस जेबी पारदीवाला और आर महादेवन की बेंच ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस प्रशांत कुमार के एक फैसले पर सवाल उठाए थे। बेंच ने उनके आदेश को 'सबसे खराब' करार दिया था। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने आदेश जारी करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट को ये निर्देश दिया था कि जस्टिस प्रशांत को सुनवाई के लिए आपराधिक मामले असाइन न किए जाएं। साथ ही आदेश दिया कि उनको किसी वरिष्ठ जज के साथ बेंच में रखा जाए।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट के 13 जजों ने अपना साइन किया लेटर जारी किया। इस लेटर में उन्होंने जस्टिस प्रशांत कुमार का समर्थन किया। साथ ही हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस अरुण भंसाली से फुल कोर्ट मीटिंग बुलाने की मांग की। लेटर में कहा गया कि 4 अगस्त 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने जो आदेश दिया, वो नोटिस जारी किए बिना दिया, जोकि उचित प्रक्रिया के तहत नहीं है। जजों ने सुझाव दिया कि हाईकोर्ट की फुल कोर्ट ये संकल्प ले कि हाईकोर्ट के जस्टिस प्रशांत कुमार को आपराधिक मामलों की सूची से हटाने का आदेश का पालन नहीं करेगा।
क्या है पूरा मामला?
सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने मेसर्स शिखर केमिकल्स बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में विशेष अनुमति याचिका (आपराधिक) की सुनवाई की थी। इसकी सुनवाई करते हुए उन्होंने जस्टिस कुमार के खिलाफ आदेश जारी किया था। मेसर्स शिखर केमिकल्स ने एक आर्थिक विवाद को लेकर सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था। इससे पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस प्रशांत कुमार ने मामले की सुनवाई करते हुए कंपनी की याचिका को खारिज कर दिया था।
जस्टिस प्रशांत कुमार की बेंच ने कहा था कि सिविल मुकदमों में काफी देरी होती है और पीड़ित पक्ष को इससे आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है। ऐसे में इस लागत से बचने के लिए आपराधिक कार्यवाही जारी रखना उचित है। सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को 'न्याय का मजाक' करार देते हुए कहा कि कानून का स्थापित सिद्धांत ये है कि सिविल मामले के साथ आपराधिक मामला नहीं चलाया जा सकता।
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